वह व्यभिचारी, पृथ्वी पर बीमारी,
दो बूंद गिराकर किसी के बाप बन गए।
पत्नी को बिना पूछे गर्भवती बनाकर,
उससे बच्चा जनवाकर बाप बन गए।
चाह लड़के की, लड़की ने जन्म लिया,
फिर झूठी हंसी दिखाकर बाप बन गए।
लड़के की चाह में, दिमागी उहापोह में,
लड़किया पैदा करवा के बाप बन गए।
न जाना न समझा कि बाप होता क्या है,
शादी के बाद ताने सुनकर बाप बन गए।
समाज से डरकर परवरिश करते हुए,
कुछ जरूरी खर्चा करके बाप बन गए।
बाहर तो कुछ भी बोलते ना बनता,
घर में शेर हो गए जब बाप बन गए।
बुढ़ापे का सहारा कौन होगा साहब,
यही सोच विचारकर बाप बन गए।
– प्रीत लीला डाबर ” vibrant writer