मैं वह अहिल्या हूं जिसे किसी राम का इंतजार नहीं !
मै पाषाण थी पाषाण हीं रहना चाहती हूं !
नारीत्व के सभी गुणों को जड़त्व सांचे में ढाल ,
चेतना से दूर ,पुरुष का स्पर्श ही क्या नारी को पूर्ण बनाता है ? कामनाओ से दूर
भोग नही उपभोग नही
सभी इन्द्रियो का दमन कर वैदेही
अपनी सृष्टी स्वयंम मे समेटे हुए !
कितना सुख है पाषाण होने में
कोई काया नही कोई छाया नही
ना दुख की अनुभूति ,चरित्र लाँछन से दूर ,
परित्यक्ता ,रीति रिवाज की बेड़ियों से मुक्त ,घुंघरू नहीं बंधन नही
कोई शिवालय नहीं देवालय नही समय काल की परिधि से अछूत संवेदना से परे
चिंता के चिता तक के सफर का अंत परिचितों के चक्रव्यूह से दूर
दुर्गम पहाडो पर सोई रहूँ गहरी कही किसी ऋतु का मुझ पर कोई असर न हो !
झुलसाती गर्मी में ,अकडाती सर्दी बारिश में भीगने ,सब से अनभिज्ञ पाषाण हीं रहूं !
मेरु पर्वत सी दृढ पर जमीन से जुड़ी !
धर्म के नाम पर नहीं छलना मुझे ,
यंत्र वत नही चलना मुझे ,
कोई हिज्जों हिस्सो मे नहीं बँटना मुझे खन्डित नही अखंड रहना है मुझे समय परिधि से दूंर
अपनी कलाओअपनी विधाओ के साथ ,
मातृत्व को छाती में बाँध,भक्षण से दूर
सदियां बीत गई मुझ में कोई बदलाव ना आया होगा ?
क्या पाषाण पिघला होगा?
क्या मुझे भी इन्तजार होगा ,
किसी राहगीर को विश्राम दे दूं ?
थके पथिक को आसरा ,?
किसी को सानिध्य में दे दूं ?
क्या पाषाण होकर भी एक नारी थी? कि नारी होकर भी पाषाण ?
अहिल्या थी कि पाषाण ?
पाषाण थी कि अहिल्या ??
– भारती गावडे देसाई