शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसने वासना शब्द नहीं सुना हो, क्योंकि जीवन या सांसारिक माया के पूरे खेल के पीछे एकमात्र निर्देशक जो मनुष्य को जीवनभर नचाता है वो वास्तव में वासना ही तो है। इसके अलावा, मोक्ष केवलज्ञान या संपूर्ण आध्यात्मिकता का एकमात्र केंद्र वासनानाश है। इस प्रकार हम अनादि काल से जानते हैं कि सजीव प्राणियों के अस्तित्व के पीछे वासना की बहुत बड़ी और महत्वपूर्ण भूमिका है। तो यह समझना आवश्यक है कि वासना किसे कहते हैं? इसके कार्य क्या है? इसकी पहचान कैसे की जाती है? इसके प्रकार क्या हैं? और इससे छुटकारा पाने के क्या तरीके हैं? तो चलिए आज विस्तार से वासना का परिचय प्राप्त करते हैं क्योंकि बिना परिचय के समस्या का समाधान हो नहीं शकता।
गुलाब-मोगरा जैसे फूल किसी जगह पर रखे जाये और लंबे समय तक वहां रहे उसके बाद वहां से हटाने पर भी इसकी गंध बनी रहती है, वेसे ही प्याज या लहसुन का पेस्ट एक बोतल में भर दिया जाये, इस्तेमाल होने के बाद खाली कर दिया जाये फिर भी लंबे समय उसकी गंध रहती है, साफ करने के बावजूद गंध कुछ समय तक दूर नहीं होती, ऐसे ही हिंग की डिब्बी में जब आप कुछ और भरने के लिए उसको खोलते हैं, तो इसकी गंध आपको याद दिलाती है कि हिंग पहले इस बोतल में मौजूद थी। हमने अचार के मामले में भी ऐसा ही महसूस किया होगा, यह वास या गंध और कुछ नहीं, वासना है। अनादिकाल से, विभिन्न योनियों या शरीरों के माध्यम से जीवों के कर्म और भावनाएं (इच्छाएं) संस्कार (वास) से गुजरती हैं और ऐसे संस्कारयुक्त कार्य कुछ और नहीं बल्कि जीव की वासनाएं हैं, जो जल्दी इसका पीछा नहीं छोड़ती हैं।
अब हम समझते हैं कि इस वासना का कार्य क्या है? हम सभी जानते हैं कि आत्मा अमर है, इसका विनाश संभव नहीं, इसलिए जब आत्मा शरीर छोड़ती है तो पूर्वजन्म की वासना इसके साथ जाती है। शास्त्र कहते हैं कि जैसे हम पुराने घर से नए घर में जाने पर बहुत सी पुरानी चीजों को अपने साथ ले जाते हैं वैसे ही व्यक्ति अपनी कई वासनाऐ अपने साथ ले जाते है। शास्त्रों के अनुसार, मृत्यु के बाद तीन चीजें आत्मा के साथ जाती हैं 1) ज्ञान या विध्या 2) कर्म और 3) पूर्वप्रज्ञा (संस्कार)। विद्या का अर्थ है आराधना, वह भावना (इच्छा) जो जन्म से लेकर समय-समय पर कर्म का रूप लेती है। भावना (उपासना) और कर्म मिलके संस्कार (पूर्व-चेतना) बनने है। जो वासना का रूप लेती है और जन्म से लेकर मृत्यु तक जीवके साथ रहती है और समय-समय पर उसके अनुसार मनुष्य को नचाती है। ऐसी वासनाओं के आधार पर ही हमारी प्रकृति, कार्य, पसंद और नापसंद, इच्छाओं आदि का निर्माण होता है। हम सभी जानते हैं कि हम अपना पूरा जीवन सिर्फ नाचते रहेते हैं क्योंकि हमारी इच्छाओं, स्वभाव, पसंद और नापसंद पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है। हम नहीं जानते कि कोई इच्छा या काम कब पैदा होगा, किस पर हमें प्यार आएगा या नफ़रत होगी ये तक हमारे हाथों में नहीं है, ऐसी सभी परिस्थितियां पूर्वनिर्मित वासनाओ द्वारा निर्मित हैं। उदाहरण के तोर पे, सीताजीको एक स्वर्णमृग प्राप्त करने इच्छा हुई और पुरे रामायण का सर्जन हो गया। एक बार जब कोई इच्छा उत्पन्न हो जाती है, तो व्यक्ति उसकी पूर्णता के लिए अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष प्रयास करते हुए, उसकी प्राप्ति के बारे में संकल्प करता है, जिसे कर्म उत्पन्न होता है, जो कर्म अपना चिह्न छोड़ देता है, उसी तरह अनंत जन्मों से काम-संकल्प-कर्म और संस्कार की परंपरा चल रही है। हमने वासना का एक ढेर बनाया है। जितना हम इस शरीर से भुगत पाते है उतना भुगतने बाद हम बचे हुए कर्मों का आनंद लेने के लिए कई नए जन्मों और शरीरों को प्राप्त करते हैं और ऐसे ही यह परंपरा जारी रहती है। इसीलिए भगवद-गीता में कहा गया है कि अंत समय पर (मृत्यु के समय) आप जो सोचते हैं (जैसी वासना होगी) उसी के अनुसार आपको नया जन्म या शरीर मिलेगा। लेकिन यह कभी न भूलें कि आपने अपने पूरे जीवन में निरंतर जो अभ्यास किया है वही अंत में याद आता है। जिसने जीवन भर धन का पीछा किया है, उसे अंत समय पर कभी भी भगवान की याद नहीं आयेगी या मुक्ति की इच्छा नहीं होगी, यही कारण है कि शास्त्र पूरे जीवन के लिए वासनानाश और तपस्या का अध्ययन करने की सलाह देते हैं, जो बहुत ही वैज्ञानिक है।
वासना का अर्थ और कार्य जानने के बाद, स्वाभाविक प्रश्न यह है कि हम यह कैसे जाने हैं कि हमारे अंदर वासना है या नहीं? वासना की पहचान करने का एक आसान तरीका हमारे अपने व्यवहार का अध्ययन करना है। सामान्य तौर पर, हमारा व्यवहार कई प्रकार का होता है जैसे 1) आवेगी व्यवहार 2) विवेकाधीन व्यवहार 3) त्वरित व्यवहार 3) वांछित या पूर्व निर्धारित व्यवहार आदि। यह समझना कि जब हमारा व्यवहार अति आवेगपूर्ण होता है, तो वासना से भरा होता है। आवेग वह है जिसके हम कब्जे में हैं, जिसके माध्यम से कर्म अनजाने में या पूर्व इच्छा के बिना हो जाता है अर्थात् अनिच्छा से। जैसे यदि आपको मुफ्त में कुछ मिलता है, तो आप इसे लेना चाहेंगे, भले ही यह उपयोगी नहीं है, जब आप किसी को आगे बढ़ते हुए देखेंगे तो आपको ईर्ष्या होगी और हम इसके साथ मुकाबला करेंगे, वैसे ही किसी के अधिकार को मारने की इच्छा होना, (कई लोग भाईबंधू एवम रिश्तेदारों का अधिकार छीन लेते हैं)। क्रोध का जन्म होना, किसी अजनबी पर प्यार या सहानुभूति पैदा होना, ये सभी आवेगपूर्ण व्यवहार के उदाहरण हैं। जिसके पीछे वासना जिम्मेदार है। हम ऐसे आवेगों या वासना से शासित हैं। वास्तव में, हम वासना के गुलाम हैं, हमारी अनिच्छा होते हुए भी क्रोध-घृणा, प्रतिस्पर्धा, चोरी, अहंकार आदि उत्पन्न होते है, जिसके पीछे कई जन्मों का लेन-देन, भाग्य, उस दिशा का अत्यधिक चिंतन आदि जिम्मेदार हैं। इसीलिए शास्त्र सलाह देता है कि व्यक्ति को अयोग्य प्रेरणाओं और अनुचित विचारों (कार्यों) से दूर रहना चाहिए जो उस वासना को अंकुरित करते हैं जो बीज के रूप में हमारे मनमे संग्रहित है। हम जानते हैं कि यदि किसी बीज को मिट्टी में दबाया जाता है, तो वह बारिश के साथ उग आता है। इस प्रकार बीज से पौधों के अंकुरण के लिए अकेले बारिश जिम्मेदार नहीं है। बारिश सिर्फ एक बहाना है। वर्षा बिना बीज के कुछ नहीं कर सकती। यदि बीज को अंकुरित होने के लिए सही वातावरण (यानी मिट्टी, खाद, बारिश, धूप) नहीं मिला, तो यह निश्चित समय में नष्ट हो जाएगा। संक्षेप में कहे तो , हम बिलकुल स्वतंत्र नहीं हैं, हम वासना के गुलाम हैं, हम सिर्फ इसके नचाये नाचते हैं। हम अंतरात्मा की आवाज को सुने बिना वासना के नियम के तहत कई जन्मों से गुजरते हैं।
ऐसी वासना के दो प्रकार हैं: १) शुभवासना और २) अशुभवासना। शुभवासना मतलब धर्मवासना, जो पूर्व-निर्मित भी हो सकती है और प्रयास से भी प्राप्त की जा सकती है, जैसे कि दैवीसंपदा (सद्गुण)प्राप्त करना, दान, तपस्या, बलिदान, आदि शुभवासना के उदाहरण हैं। जिससे जीवन का कल्याण संभव हो पाता है। जबकि दूसरी अशुभवासना या बुरीभावना जो स्वाभाविक रूप से पूर्वकर्मो या संस्कारों के कारण प्राप्त होती है। कई ऐसी अशुभ वासनाएँ हैं जैसे 1) शरीर की वासना – जिसमें शरीर को सजाने की, लोगों के सामने सुंदर दिखने के इच्छा होती है। २) लोकवासन का अर्थ है, समाज में प्रतिष्ठा और मान पाने की इच्छा। ३) शास्त्रवासना का अर्थ है, दुनिया के सभी शास्त्रों को पढ़ने की इच्छा। ऐसी कई प्राकृतिक और पूर्व-निर्मित वासनाएँ जो अशुभ हैं। जिसमें भटक जानेका या पतन का खतरा रहता है। जिसके कारण जीव अपने वास्तविक गंतव्य (परमात्मप्राति) पर वापस नहीं लौट सकता।
इस वासना से छुटकारा पाने के पांच मुख्य तरीके हैं।
1)शासन का स्वीकार या नियम को स्वीकार करना – जैसा कि हमने आगे देखा, वासना के तहत दास की तरह नाचने के बजाय, माता-पिता, गुरु, धर्म, शास्त्रों के शासन में रहना बेहतर है। क्योंकि जब तक हम सही या गलत को समझने के लिए परिपक्व और योग्य नहीं हो जाते, तब तक सिद्ध या सही प्रशासन का सहारा लेना आवश्यक है। सुशासन को स्वीकार करने का सबसे बड़ा लाभ यह है कि हम दूसरों को स्वीकार करते हैं। अर्थात हम मन और इंद्रियों को नियंत्रित करना सीखते हैं। जब हम गुरु, माता-पिता या शास्त्रों के अनुसार जीने के लिए दृढ़ हैं तो हमारा अशुध्धियो से बचाव अपनेआप हो जाता है। इस प्रकार किसी भी ज्ञान, कौशल या समझ के बिना बुराई से स्वचालित रूप से हम अपनेआप को बचा लेते है। अपनी बुद्धि के बिना, अज्ञान की स्थिति में भी, पाप, वासना से मुक्ति और भगवान की प्राप्ति संभव हो जाती है।
2) हिंदू संस्कृति में बताए गए सोलाह संस्कार किसी व्यक्ति को पवित्र, शुध्ध और वासनामुक्त करने के लिए अति उत्तम साधन या प्रणाली है, अतः वह सभी का सम्मान करे और उसके अनुसार कार्य करे।
३) आहार की शुद्धि – सिर्फ भोजन ही आहार नहीं है, आहार का मतलब है की जो भोजन हम अपनी पाँचों इंद्रियों द्वारा ग्रहण करते हैं, जैसे कि जीभ से बोलना और खाना, आँखों से देखना, कानों से सुनना, नाक से सूँघना और त्वचा से स्पर्श करना या अनुभव करना, ये सभी कर्म पवित्र बनने चाहिए। बुरा मत देखो, मत बोलो, मत करो। क्योंकि ये सभी पतन के सीढ़ी हैं। एक बार गिरने के बाद, वापस लौटना या संभलना बहुत मुश्किल है। पांच इंद्रियों द्वारा उत्पादित भोजन शरीर में कफ, पित्त और वात पैदा करता है। जो स्वास्थ्य और बीमारी के लिए जिम्मेदार कारण हैं। वासना का क्षय आसान हो जाता है यदि संपूर्ण दैनिक दिनचर्या इंद्रियों से शुद्ध हो।
४) कर्मयोग – वासनाओं से प्रेरित कर्म, फल प्राप्ति की इच्छा से प्रेरित कर्म, द्रढ़ संकल्प से होनेवाले कर्म बंधनरूप होते है। जो फिर से वासना-भावना-निश्चय-पूर्वप्रज्ञा (संस्कार)-कर्म और भाग्य का दुष्चक्र पैदा करता है। इस लिए कर्म ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए, निश्कामभाव से, कामवासना रहित करने से ही वासनानाश संभव है। जो वासनानाश का सबसे अच्छा तरीका है। जिसका विवरण भगवद गीता में दिया गया है, जिसे हम सभी जानते हैं।
५) पूजा-ध्यान-स्मरण आदि का निरंतर सानिध्य रखना वासनामुक्त होने के लिए आवश्यक है। एकांत में ध्यान, पठन, निधिध्यानासन आदि करना उत्तम है। अगर दो लोग मिलते हैं तो सत्संग और अगर एक बड़ा समूह इकट्ठा होता है तो भाषण या व्याख्यान की व्यवस्था करनी चाहिए। संक्षेप में, सभी प्रयासों के माध्यम से मन को भगवानमें (सर्वोत्तममें) व्यस्त रखना चाहिए। क्योंकि हम जानते हैं कि “खाली मन शैतान का घर”। मन की दिशा और विचारों की गुणवत्ता पर लगातार ध्यान देना चाहिए और निरंतर ये ध्यान रखना चाहिए कि मन किस दिशा में बारबार जाता है? ताकि अनुचित विचार मन में प्रवेश न कर सकें। साथ ही दिमाग में सबसे अच्छे विचारों को लाने की एवम स्थिर करने कोशिश करनी चाहिए।ऐसे विशिष्ठ अध्ययन को निर्बाध रूप से जारी रखें। प्रतिस्पर्धा को मित्रता में, ईर्ष्या को आनंद में, अहंकार को स्वीकृति में परिवर्तित करना चाहिए और वेदांत के चिंतन के माध्यम से वासना का क्षय करना चाहिए। इस प्रकार ध्यान कुछ और नहीं, बल्कि मन को “स्टेच्यु” कहने की एक प्रणाली है, यानी मन को शांत और स्थिर करने की प्रणाली। जिसे एक प्राकृतिक खेल की तरह लगातार खेला जाना चाहिए।
६) तत्वज्ञानप्राप्ति – मतलब अपने शुद्ध रूप में स्थिर रहना। आत्मा का शुद्ध रूप सत, चित और आनंद है। ताकि कुछ भी बुरा न हो, और लगातार जागृत रहे कि मैं शुद्ध आत्मा हूं और में कुछ बुरा कैसे कर सकता हु? ऐसी भावना को लगातार बनाए रखना पड़ता है। इसके अलावा, निरंतर प्रयास जारी रखना होगा क्योंकि बिना अध्ययन के कुछ भी हासिल करना संभव नहीं है। दृढ़ संकल्प और अध्ययन के माध्यम से अप्राप्य प्राप्ति भी संभव है। इसके अलावा, दुनिया में हर योनि में दर्द है ये समझने की कोशिश करनी चाहिए, अर्थात दुनिया के वास्तविक रूप को समझना ही तत्वज्ञान प्राप्ति कहलाता है। जिससे बच निकलने की इच्छा का होना ही सच्चा तत्वदर्शन है। इंद्रियाँ, मन-बुद्धि वासना का मुख्य स्थान है। मन और बुद्धि में सूक्ष्म वासना होती है और इंद्रियों में स्थूल वासना होती है। इस प्रकार उन सभी स्थानों से वासना को हटाकर स्थान की पहचान करने की कोशिश करना अनिवार्य है।
वास्तव में, तपस्या, दान, यज्ञ आदि के माध्यम से, हम उस अभिलाषा को दूर करना चाहते हैं, अर्थात् वासना को नष्ट करना चाहते हैं, ये सब वासना को स्थगित करने की व्यवस्था नहीं है पर हम इन सबसे वासनाको केवल स्थगित करते हैं। जो वास्तविक तपस्या नहीं है, जिसके कारण भोग के बीज एक समान रहते हैं और मोका मिलते ही फिर से अंकुरित हो जाते हैं, जेसे दस दिनों तक उपवास करना तप नहीं है, ऐसे तपमें सीमित समय के लिए हम भोग को स्थगित कर देते है और ग्यारहवें दिन भोजन की वासना पैदा हो जाती है। तपको सुनिश्चित करने के लिए ध्यान रखा जाना चाहिए कि ऐसा न हो। समझ के साथ, अर्थात्, ज्ञान के अधिग्रहण के माध्यम से, इंद्रियों के रस को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। जब ये ज्ञात हो जाता है कि कुछ दर्दनाक है, तो इसे छोड़ना आसान हो जाता है। सांसारिक भोगवृत्ति अत्यंत दुखदायक हे ये वास्तविकता समझने से उसको छोड़ना आसन हो जाता है।
मानवजीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि जीवनमुक्ति (सभी प्रकार के शारीरिकबंधनों और सांसारिकबंधनों से मुक्ति) है क्योंकि यह सभी कष्टों की जड़ है। ऐसी मुक्ति के तीन साधन हैं: १) तत्वज्ञान की प्राप्ति २) मन की शुद्धि और ३) वासनानाश। लेकिन तत्वज्ञान की प्राप्ति और मनोशुद्धि वासनानाश के बिना संभव नहीं है। तो मुक्ति के लिए सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा वासनानाश है। केसर-बादाम के दूध को लहसुन, प्याज या हींग की बदबूवाले बर्तन में डाल दिया जाय, तो बदबू तो हींग, लहसुन या प्याजकी ही रहेगी। ठीक उसी तरह वासनायुक्त मनमे तत्वज्ञान का प्रकाश संभव ही नहीं। जब हम मिट्टी में सोनेकी क्यारी बनाते हैं, कस्तूरी खाद डालते हैं लेकिन प्याज बोते हैं, तो आपको क्या मिलेगा? वो हम बखूबी जानते हैं। सारांश ये हे की वासना किसे कहते हैं? इसका कार्य क्या है? इसके प्रकार क्या हैं? आदि की पहचान की जानी चाहिए और इसके विनाश के लिए उपाय किए जाने चाहिए। ताकि मानवजीवन की सर्वोत्तम उपलब्धि (जीवनमुक्तिकी प्राप्ति) संभवित हो सके।
~ शिल्पा शाह
प्रिन्सिपाल, एचकेबीबीए कॉलेज