किसी ने रामकृष्ण परमहँस से स्वामी विवेकानंद की निंदा करते हुए कहा “नरेंद्र ज्ञानी तो है परन्तु न जाने क्यों मुझे थोड़ा सा अभिमानी लगता है..मैंने तो सुना था फलों से लदा वृक्ष झुका रहता है..ज्ञानी तो बड़े विनम्र होते हैं.. पर उसमें थोड़ी अकड़ दिखाई देती है”
“फलविहीन वृक्ष तो सदैव लचीला रहेगा क्योंकि उसपर कैसा बोझ…फलों से लदे वृक्ष की शाखाएं झुकीं किंतु तनी रहतीं हैं..जिसे तुम अभिमान समझ रहे हो वह फलों के बोझ से उत्पन्न हुआ तनाव है..अकड़ नहीं..शाखा अगर सीमा से अधिक लचीली होगी तो फल मिट्टी में मिल जाएंगे..सड़ जाएंगे.. बताओ तुम क्या ऐसे फल खाना चाहोगे….”
परमहँस ने उससे पूछा और उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही आगे बोले “ज्ञानी उसी वृक्ष के समान होता है जिसकी शाखाओं का स्वाभिमान रूपी यह तनाव ही ज्ञान प्राप्ति के इच्छुक को ज्ञान रूपी स्वस्थ फल के लिए परिश्रम कराता है”
“तुम नरेंद्र की निंदा करके भी वही परिश्रम कर रहे हो..वृक्ष पर लाठी बरसाओ तब भी वह तुम्हें फलों से पुरस्कृत करता है..लेकिन वह अपने फलों को मीठी बातें करने वाले कर्महीन की झोली में नहीं डाला करता जैसे कि मैं कर बैठता हूँ.. नरेंद्र से मुझे अभी यह गुण सीखना शेष है” परमहँस ने मुस्कुराते हुए अपनी बात समाप्त की।
शिष्य को उसकी लघुता के साथ स्वीकार करने वाला गुरु होता है परन्तु अपने शिष्य की गुरुता को स्वीकार करने वाला महागुरु हो जाता है।